कार्तिक मास माहात्म्य कथा - भाग 14
14 वांअध्याय
हे राजन !इस प्रकार उसको धर्म पूर्वक राज्य करते देखकर देवता निशब्द हो गए उन्होंने देवाधिदेव भगवान शंकर का मन में स्मरण करना प्रारंभ कर दिया ।इतने ही प्रकार से स्तुति की तब भक्तों की कामना पूरी करने वाले शंकर जी ने नारद जी को बुलाकर देव कार्य करने की इच्छा से उनको देव पूरी भेजा शंकर भक्त नारद भगवान शंकर की आज्ञा से देवपुरी में गए ।इंद्र आदि सभी देवता व्याकुल हो शीघ्रता से उठकर श्री नारद जी की स्तुति करने लगे ।उत्कंठा भरी दृष्टि से सब ने नारद जी की ओर देखा। अपने सब दुखों को कहकर उन्हें नाश करने की प्रार्थना की नारद जी ने कहा मैं सब कुछ जानता हूं ।इसलिए अब मैं दैत्यराज जालंधर के पास जा रहा हूं ।ऐसा कहकर देवताओं को आश्वासन देकर श्रीनाथजी जालंधर की सभा में आए जालंधर ने नारद जी के चरणों की पूजा कर हंसते हुए कहा -हे !ब्राह्मण आप कहां से आ रहे हैं और कहां-कहां पर आपने क्या-क्या देखा ?यहां कैसे आए हैं! मेरे योग्य जो सेवा हो उसके लिए मुझे आज्ञा दीजिए। जालंधर के इस प्रकार के वचन सुनकर नारदजी प्रसन्न होकर बोले हे! दानव- राज महा बुद्धिमान जालंधर तुम धन्य हो क्योंकि इस समय सब रत्नों के भोक्ता एक तुम ही हो ।हे !दैत्य श्रेष्ठ अब आप मेरे आगमन का कारण सुनिए जिसके लिए मैं आज यहां आया हूं हे दैत्यराज मैं स्वेच्छा से कैलाश पर्वत पर गया था जहां 10000 योजनाओं में कल्पवृक्ष का वन है वहां पर मैंने सैकड़ों कामधेनु को घूमते हुए देखा। तथा यह भी देखा कि वह 1 चिंतामणि से प्रकाशित परम दिव्य अद्भुत और सब में है। मैंने वहां पार्वती के साथ स्थित शंकर जी को भी देखा जो सुंदर गौरव त्रिनेत्र और मस्तक पर चंद्रमा धारण किए हुए हैं ।यह देख कर मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ कि इनके सामान समृद्धिशाली त्रिलोक में कोई है या नहीं ?हे देवेंद्र उसी समय मुझे तुम्हारी भी स्मृति का स्मरण हो आया ।और देखने की इच्छा से तुम्हारे पास आया हूं ।यह सुन जालंधर को बड़ा हर्ष हुआ उसने नारदजी जी को अपनी सब समृद्धि देखकर देवताओं का कार्य करने से कार्य करने में इच्छुक से प्रेरित नारद ने जालंधर की बड़ी प्रशंसा की और कहां। निश्चय ही तुम त्रिलोक पति होने के योग्य थे ।
तुम्हारे लिए ऐसा होना कोई विचित्र बात नहीं है ।मैं देखता हूं और तुम्हारे पास सब कुछ है किसी बात की कमी नहीं है। एरावत , कल्पवृक्ष और कुबेर की निधि तुम्हारे पास है, मणियों और रत्नों के ढेर भी तुम्हारे पास लगे हुए हैं ।
ब्रह्मा जी का हंस युक्त विमान भी तुम्हारे पास है ।और पाताल लोक और पृथ्वी पर जितने भी रत्न आती हैं ।वह सब तुम्हारे ही तो है। मैं तुम्हारे इस प्रकार के रत्नेश्वरी को देखकर बड़ा प्रसन्न हूं ।परंतु तुम्हारे पास कोई स्त्री रत्न नहीं है। इसलिए तुम्हारा यह सब कुछ अधुरा है तुम कोई स्त्री रत्न ग्रहण करो ।नारद जी के इस प्रकार के वचन सुनकर दैत्य काम से व्याकुल हो गया। उसने नारद जी को प्रणाम करके पूछां कि ऐसी स्त्री कहां मिलेगी जो सब रत्नों में श्रेष्ठ हो। यदि ऐसा रत्न कहीं मिले तो मैं उसे अवश्य लाऊंगा ।देवर्षि नारद बोले ऐसा रत्न तो कैलाश पर्वत पर योगी शंकर के पास ही है। उनकी सर्वांग सुंदर पत्नी देवी पार्वती बहुत ही मनोहर है ।उसके समान सुंदरी मैंने आज तक नहीं देखी। शंकर से बढ़कर समृद्धि वाला दूसरा कोई नहीं है ।उसके इस रत्न की महिमा तीन लोको और में कहीं पर भी नहीं है। तभी तो परम विरक्त आत्माराम शंकर भी उसके वश में हो गए। देवर्षि नारद उस दैत्य से ऐसा कहकर अन्य कार्य करने की इच्छा से आकाश मार्ग से चले गए।
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