सखियों के श्याम - 1
🌹 उरहनो देन मिस गयी श्याम दरसको 🌹
'श्याम सलिले यमुने! यह श्याम रंग तुमने कहाँसे पाया ? कदाचित श्यामसुन्दरका चिंतन करते-करते तुम भी श्यामा हो गयी हो। ये लोल लहरिया तुम्हारे हृदयके उल्लासको प्रकट करती है; अवश्य ही नटनागर यही कहीं समीप ही हैं, कि तुम हर्ष-विह्वल हो उठी हो! कहाँ है; भला बताओगी मुझे ?"
'क्या कहूँ बहिन! घरमें जी लगता ही नहीं; साँस जैसे घुट रही थी। जैसे-तैसे काम निपटा कर पानी भरनेके मिस चली आयी हूँ। सुबहसे श्यामके दर्शन नहीं हुए। समझाती हूँ मन को कि अभागे! तूने ऐसे कौनसे पुण्य कमाये हैं कि नित्य दर्शन पा ही ले! पर समझता कहाँ है दयीमारा! यदि दर्शन हो भी जाय तो कहेगा 'एक बार और' 'एक बार और'। आह! इसकी यह एक बार कभी पूरी न होगी; और न यह मुझे चैन लेने देगा हतभागा। सौभाग्यशालिनी तो तुम हो श्रीयमुने! कि श्यामसुंदर तुम्हारे बिना रह ही नहीं सकते। यहाँ-वहाँ, कहीं-न-कहीं तुम्हारे समीप ही क्रीड़ा करते रहते हैं।'
'बहुत विलम्ब हो गया, मैया डाँटेगी; पर तुम्ही बताओ श्रीयमुने! घड़ा तो भरा रखा है, इसे उठवाये कौन ? श्यामसुंदर होते तो उठवा देते, उठवा देते या फिर फोड़ ही देते; अरे कुछ तो करते! यह अभागा तो ज्यों-का-त्यों भरा रखा है। यहीं-कहीं तुम्हारे तटपर होंगे! कहो न उनसे कि मैं जल भर आयी हूँ, जरा घड़ा उठवा दें। इतनी कृपा कर दो न देवी तपनतनये! परोपकारके लिये ही तो तुमने यह पयमय वपु धारण किया है, मुझे भी कृपा कर अनुगृहीत करो।'
हाँ, सखियो! मेरी मैया मुझे साथ लेकर उलाहना देने नंदभवन गयी। थी। जाते ही उसने पुकारा-'नन्दरानी! अपने पूतकी करतूत देखो और देखो मेरी लालीको हाल।'
हा भयो बहिन!' कहती नन्दरानी बाहर आयीं- 'कहा है गयो ?" तुनक कर मैया बोली—‘लाली जल भरने गयी थी। कन्हाईसे घड़ा उठवानेको कहा, तो घड़े-का-घड़ा फोड़ दिया; मुक्तामाल तोड़कर इसकी चुनरी भी फाड़ दी सो अलग! क्या कहें नन्दरानी! लगता है गोकुल छोड़कर कहीं अन्यत्र जाकर बसना पड़ेगा। तुम्हारे तो बुढ़ापेका पूत है, सो लाड़ दुलारकी सीमा नहीं; माथे लेयके कंधेपर बिठायें, पर इस नित्यके उधमसे हम तो अघा गयी है बाबा!'
'नेक रुको बहिन!' व्रजरानी हाथ जोड़कर बोली- 'कन्हाई तो तुम्ही सबका है। तुम सबके आशिर्वादसे ही इसका जन्म हुआ है। अपना समझकर तुम जो कहो, सो दंड देऊँ। बाहर खेलने गया है, तुम लालीको यहीं छोड़ जाओ, वह आयेगा तो इसके सामने ही उससे पूछूंगी।'
'तुम तो भोली हो नंदगेहिनी! तुम्हारा लाला भी कभी अपराध सिर आने देता है भला! तुम डाल-डाल, तो वह पात-पात फिरेगा।' मैया बोली। 'लालीको यहीं छोड़ जाओ, नीलमणि आता ही होगा। नंदरानीने कहा। मेरी मैया मुझे वहीं बिठाकर चली गयी।
ब्रजेश्वरीने मुझे नवीन वस्त्र धारण कराये, पकवान खिलाये और गोद में बिठाकर दुलारती हुई बोली- 'क्या करूँ बेटी! नीलमणि बड़ा चंचल है; तुझे कहीं चोट तो नहीं लगी? आयेगा तो आज अवश्य मारूँगी उसे!'
मैंने भयभीत होकर सिर हिला दिया कि कहीं चोट नहीं आयी। मनमें आया कहीं सचमुच मैया मार न बैठे अथवा पुनः बांध न दें! अपनी मैयाकी ना समझी पर खीज आयी; क्यों दौड़ी आयी यहाँ!
तभी बाहर बालकों का कोलाहल सुनायी दिया मैं सिकुड़ सिमट कर बैठ गयी।
'कन्हाई-रे-कन्हाई!'– मैयाने पुकारा। 'हाँ मैया!'- श्यामसुंदर दौड़ते हुए आये। 'क्या है मैया! यह कौन बैठी है, किसकी दुलहिन है ?'– उन्होंने एक साथ अनेकों प्रश्न पूछ डाले।
मैं तो लाजमें डूबने लगी। मैयाने उसका हाथ पकड़कर कहा- 'आज तूने इसका घड़ा क्यों फोड़ दिया रे! मुक्तामाल तोड़करके चुनरी भी फाड़ दी और अब पूछता हैं कि यह कौन है? दारीके! तेरे उधम और गोपियोंके उलहनोंके मारे अघा गयी मैं तो!" 'नहीं तो मैया! मैं तो जानता तक नहीं कि यह कौन है! तू यह क्या कह रही हैं, मैंने तो इसे कभी देखा ही नहीं!'- श्यामसुंदर चकित स्वरमें बोले ।
कभी नहीं देखा ?'– कहते हुए मैयाने अपने हाथसे मेरा मुख ऊपर उठा दिया। 'अरी मैया! यह तो इला है। ताली बजाते हुए वे मैयाके गलेसे लटक गये।
'तू इसका नाम बदल दे।'
'क्यों रे?'– मैयाने चकित होकर पूछा।
'इला का क्या अर्थ है मैया ? वह पिलपिली सी इल्ली न? ना मैया, तू
इसका नाम बदल दे।'
'अरे मेरे भोले महादेव! इला का अर्थ इल्ली नहीं, पृथ्वी होता है; पृथ्वी।'
'ऐं! पृथ्वी होता है मैया ?' कहकर श्यामसुंदर बड़े भोले आश्चर्य से
कभी मुझे और कभी पृथ्वीको देखने लगे। मुझे हँसी आ गयी, तो मैयाको भी बात याद आयी; पुनः पूछा- 'तूने
इसका घड़ा क्यों फोड़ा ?"
श्यामसुंदर हँस पड़े - 'मैया, तू क्या जाने यह तो बावरी है बावरी ! घाटपर बैठी बैठी अकेली जमुनाजीसे बातें कर रही थी। मैं उधर गया पानी पीने को, तो देखा-सुना समीप जाकर पूछा तो बावरीकी तरह देखे जाय। मैंने हाथ पकड़कर उठाया और घड़ा उठाकर इसके माथेपर रख दिया। तो देख मैया! इसने ऐसे कमर और देह फरफरायी कि घड़ा बेचारा क्या करता, पट्से गिरा और फूट गया।'
सखियों! श्यामसुंदरने कमर और देह इस तरह हिलाई कि मैया और मैंने ही नहीं प्राङ्गणमें खड़ी सभी गोपियों और दासियोंने भी मुख पल्लूसे ढक लिये। किंतु श्यामसुंदर गम्भीर बने रहे- 'सुन मैया! मैंने इससे कहा- क्यों री, यह क्या किया तूने! घड़ा फोड़ दिया, अब मेरे माथे आयेगी क्या बातें कर रही थी तू यहाँ बैठी बैठी? मेरी बात सुनकर मैया! इसने ऐसी दौड़ लगाई की
भिड़ गयी; मैं गिरते-गिरते बचा, पर मेरी वनमाला तो टूटकर इसके साथ ही चली गयी थोड़ी दूर जाकर सम्भवतः ठोकर खाकर गिर पड़ी होगी। वहीं इसकी माला टूटी होगी और चुनरी भी फट गयी होगी।'
'मैया! मैं तुझसे सच कहता हूँ, तू इसकी मैयासे कहकर इसका ब्याह करा दे जल्दीसे। यदि किसीको मालूम हो जायगा कि यह पगली है, तो इसका विवाह न हो पायेगा।'
सखियों! मेरे लिये वहाँ बैठे रहना कठिन हो गया, हँसीसे पेट फटा जा रहा था। मैं उठते ही घरकी ओर दौड़ पड़ी, तुमने देखी उनकी चतुराई।
जय जय श्री राधेश्याम
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जय जय श्री राधे ! श्री वृंदावन !
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