सखियों के श्याम -32
🌹 सो सुख नहीं जात कह्यो 🌹
'यह देखो यह नहीं महाभाग्यवान यमुना पुलिन है, जहाँ शत सहस गोपकुमारिकाओं के साथ श्यामसुन्दर ने 'महाराम' किया था। वह सब अकथनीय है उद्धव गगन में विमानों की भीड़ लग गयी थी उनमें विराजित देववृंदों द्वारा बरसाये गये पुष्पों के पराग से हमारे चरण रंजित सुरभित हो उठे थे हमारे सौभाग्य की वह पराकाष्ठा, हमारे सुललित गान से धरा और नभ गूँज उठे थे। देववृंद हमारे कंठों का साथ दे रहे थे श्यामसुंदर कभी वंशीनाद से हमारा साथ देते और कभी उच्च स्वर से आलाप भरते उनका वह नृत्य हममें से कोई भी ऐसी नहीं थी, जिसे वे अपने समीप न जान पड़े हो।'
'यहाँ, इसी स्थलपर नृत्य करते करते थककर मैंने अपने कंधेपर रखी उनकी भुजापर श्रमजलसे भीगा कपोल रख दिया था और उन्होंने दूसरा हाथ बढ़ा उसे पोंछकर अपनी अञ्जली में मेरा मुख भर लिया था।'
'उद्धव जिन्हें तुम परात्पर कहते हो; वे हमारे लिये इस व्रजके लिये तनिक भी 'पर' नहीं थे। वे सबके अपने और सम्पूर्ण ब्रज उनका हमारे लिये वे छोटे से छोटा काम करने में भी नहीं सकुचाते और हम उनसे कैसा भी काम लेते नहीं लजाती।
हाँ, तो उस नृत्य की यह युगल छटा कैसे बताऊँ तुम्हें उद्धव वह स्मरण ही आज हमारा सम्बल है और यही स्मरण हमारा काल भी बना। धरापर पुष्पोंका आस्तरण था, हमारे पदाघातों से उसमें सुगन्ध की लहरें उठ रही थी वह सम्पूर्ण रात्रि उनके साथ नाच, गा और खेलकर हमने एक क्षण के समान व्यतीत कर दी।
नृत्य के पश्चात हम यमुना जलमें उतरे वे अकेले थे और हम अनेक वे बीचमें थे और हम मंडलाकार हमारी अंजलियोंसे उलीचे जलसे उनकी ऐसी शोभा हुई मानो कलिन्द पर्वतसे देवी तपनतनया उत्तर रही हो। उत्तर में उनके द्वारा उलीचे जलने हम सबको पूर्णतः स्नात कर दिया। बहुत समयतक जलकेलि करते रहे हम, फिर तटपर आकर वस्त्राभरण धारण करने के पश्चात् पुष्पमालाओं द्वारा हमने उनका और उन्होंने हमारा विविध शृंगार किया साथ ही साथ बहती रही नाद निर्झरिणी। 'वह आनंद- वह आह्लाद जैसे हृदय सागरमें समा नहीं पा रहा था।
श्यामचन्द्र को देख आनंद ज्वार जैसे रोम-रोमसे उमड़ा पड़ रहा था। ब्राह्ममुहुर्त लगने पर उन्होंने ही हमें घर चलने को कहा; किंतु उद्धव! हमारे मन, प्राण और तन उनके रंग में रंग चुके थे। उनके अतिरिक्त अन्य कोई संसार में हमारा है; यह बात ही अशक्य जान पड़ती थी। उन्हें छोड़ हमारे पाँव दो पद भी पथ पर चलने से असमर्थ थे । अन्ततः हम उनके साथ ही व्रजमें लौटीं। उनका चिंतन हमारा स्वभाव है! उसके बिना साँस लेते भी नहीं बनता। उद्धव तुम कहते हो हम योग का आश्रय लें। यह तो तभी सम्भव है, जब हृदय से वह श्याममूर्ति टले! वह भुवनमोहन स्मित, वह निर्झर-सा निर्मल मुक्त-हास्य, वह आकर्णदृगों की स्नेहिल दृष्टि, वह मनोहर वंशीनाद, वह बतरावनि, वह पदविन्यास ! क्या कहूँ; उनकी एक एक चेष्टा में हमारे प्राण बसे हैं।
जब वे धरापर अपने पाटलारुण पदतल धरते गौचारणके लिये, हमारे गृहद्वारके सम्मुखसे निकलते तो हमारी विचित्र दशा हो जाती दर्शन का उल्लास, दिनभर के विरह की आशंका और उनके सुकोमल चरण पीड़ा न पायें यह चिंता हमें अधमरीकर देती थी। हमारे हृदय मानो उछलकर पथ में बिछ जाने को आतुर हो उठते। साँझ को गौओं के संग लौटते समय उनकी वह छवि.... वह छवि तुम देखते उद्धव! तुम उनके प्रिय सखा हो! पर उस छवि के दर्शनका सौभाग्य तो हम व्रजवासियों का ही स्वत्व है। अहा! वंशीनाद सुन कितने आतुर - पद झरोखोंकी ओर दौड़ पड़ते थे। वृद्धायें आरती ले द्वार पर उपस्थित हो जाती, पुरुष पथपर निकल आते और जन्म नक्षत्र के बंधन से घर में रोके गये बालक अंकमाल देने सम्मुख दौड़ पड़ते। ब्राह्मणों का स्वस्तिवाचन, गुरुजनों के आशिर्वाद, माताओं की आरती और हमारे पुष्पवर्षणके बीच आगे बढ़ते मानो दो अलंकृत श्वेत-श्याम गज शावक हों! गायें घूम घूमकर अपना हृदयधन निहारती, गोपालबाल नाचते-गाते संग चलते और वे.... वे गोरज धूसर अलकें पलकें, वनधातु चित्रित तन और वन पुष्पोंसे आपाद-मस्तक सज्जित कभी वंशी बजाते-कभी गाते-कभी झरोखोंमें लगी दृष्टियोंको धन्य करते नन्दभवनकी ओर बढ़ते। हमारे लिये नित्योत्सव था, उनसे व्रज महोत्सवमय था आज.... आज वही व्रज शोभाहीन, हिमदग्ध कमलपुष्ण सा, ग्रीष्मालप से शुष्क पुष्करिणी सा और पतझड़ में ईंट से खड़े पत्र पुष्पहीन वृक्ष सा मृतप्राय है।
उद्धव यह देखो यह वह स्थल है जहाँ श्यामसुन्दर ने पूर्णचन्द्र युक्त उस शरदरात्रि में बंशी बजायी थी और उस उन्मादी नाद के कर्णी में प्रवेश करते ही हम वातग्रस्त सी चलकर उनके सम्मुख पहुँच गयी थीं।
जानते हो उद्धव उन्होंने हमारा किन शब्दों से सत्कार किया। कहने लगे 'निशिथकाल में तुम्हारा यहाँ कैसे आना हुआ सखियों कहीं व्रजमें कोई आपत्ति तो नहीं आ पड़ी? अथवा तुम चाँदनी रात में बनकी शोभा देखने आयी हो। यदि ऐसा है तो अब तक तुम देख चुकी होंगी, अब घर जाओ। सद्गृहस्थ की सती स्त्रियों को रातमें अकेली इस प्रकार नहीं घूमना चाहिये
हम सब भीत चकित उनका मुख निहारने लगी- 'क्या कह रहे हैं श्यामसुंदर क्या हम अपनी इच्छा से ही यहाँ आयी हैं? हम तो अपने अपने घर के काम में लगी थीं; यह प्राण मनोहारी बंसी बजाकर स्वरतंतु से बाँध तुम्हीं ने तो हमें खींच लिया। उस नाद में कितना कठिन आकर्षण था यह कैसे बतायें। प्रत्येक ने उसमें अपने नाम का आह्वान सुना सुनकर ठहर पाना क्या अपने वश की बात थी ? जो जैसे थी; वैसे ही अचेतन सी चल पड़ी प्रमाण भी सम्मुख है किसी के हाथ में करछुल, किसी के बेलन, किसी के दोहनी, किसी के सिंदूर की चुटकी और किसी की उँगली में लगा काजल! कोई आधे और कोई उलटे वस्त्र पहने हैं। किसी की आधी बंधी वेणी और किसी के खुले केश, किसी के एक पैर में महावर और किसी की एक आँख का काजल यही तो कह रहा है कि हम किसी प्रकार अपने को रोक नहीं पाय; अब ऐसी बातें क्यों ? "
'देखो सखियों! यदि तुम मेरे प्रेमवश अथवा वंशीनाद सुनने आयी हो तो वह भी अब हो चुका अतिकाल हो रहा है। कहीं ऐसा न हो कि तुम्हें घर में न पाकर तुम्हारे स्वजन व्याकुल होकर ढूंढ़ने निकल पड़ें। यदि मेरे प्रेमवश आयी हो तो यह कोई अपराध नहीं है। चर-अचर सभी प्राणी मुझसे प्रेम करते हैं। किंतु दूर रहकर मुझसे जितना प्रेम किया जा सकता है, उतनी तीव्रता समीप रहने पर प्रेम में नहीं आती। अतः तुम घर लौटकर अपने कर्तव्य पालन में लगो धर्म ही स्वर्ग और अपवर्ग का मूल है, मैं भी धर्मपालन से ही प्रसन्न होता हूँ
अपनी दशा हम क्या कहें उद्धव! सिर नीचे झुक गये, नेत्रों से निकला जल धरा को सिंचित करने लगा, होठ सूख गये। चिरकाल से संचित आशा टूट • जाने से नेत्रों के सम्मुख अंधकार भर गया और भूमि घूमती हुई लगी। हम कुछ भी कहने में असमर्थ हो गयीं। लौट जाना क्या सहज था ?
'श्यामसुंदर!' यह स्वर सुन एकाएक हममें पुनः आशाका संचार हुआ। श्रीकिशोरी जू कह रही थीं- 'ऐसी अनीति मत करो मोहन! हमारी बहुत दिनों की आशाको यों मत मिटाओ। हम इस निशा में घरसे बाहर आयीं इसमें हमारा क्या अपराध ? तुम्हीं ने वंशी में नाम ले लेकर हमें पुकारा। तुम्हारा रूप, चेष्टायें और कर्म देख हम सहज ही तुम्हारी दासी हो गयीं हैं। कहो तो! त्रिभुवन में ऐसा कौन आँख-कानवाला प्राणी है जो तुम्हें देखकर-तुम्हारी वाणी और वंशीनाद सुनकर तुमपर न्यौछावर न हो जाय? हम तो वैसे ही अबला हैं! अब तुम्हारे अतिरिक्त हमारी कोई गति नहीं— प्राणत्याग के अतिरिक्त कोई उपाय नहीं, किंतु तुम्हारे दर्शन का लोभ हमें मरने नहीं देता। मनमोहन ! तुम सभी प्राणियों के अनुकूल हो, हमसे ही ऐसा क्या अपराध बन पड़ा कि ऐसे प्राणान्तक वचन सुनने पड़े? देखो, इन वृक्षों, वनस्पतियों, रात्रि और चन्द्रमा को सुख प्रदान करने तुम घर छोड़ - निद्रा त्याग यहाँ आ बैठे हो । धारित्री को प्रसन्न करने को धरापर बिना पदत्राण धारण किये विचरते हो। गुरुजनों के समीप बैठ तरह- तरह की बालोचित चेष्टाओं और वचनों से सुख देते हो। पशु-पक्षियों की क्या कहें! वे दिन-रात तुम्हारे संग लगे रहते हैं । सबसे अधिक सौभाग्यशाली तो हैं तुम्हारे सखा ! जो दिनभर साथ रहकर भी विभिन्न प्रकार की क्रीड़ा करते हैं, फिर भी अघाते नहीं; रात्रि में नंदभवन से उन्हें लाने में उनके माता पिता को बड़ी कठिनाई होती है। कहो तो हम अभागिनों को तुम्हारा साथ क्यों दुर्लभ है ? प्रातः गौचारण के लिये जाते और साँयकाल लौटते हुए बहुत थोड़े समय के लिये ही तुम हमारे नयन-अतिथि बनते हो; सो भी दुष्ट विधाता की दी ये पलकें बार-बार व्याघात उपस्थित
करती हैं। ऐसा क्यों श्यामसुंदर ? तुम्हीं ने भगवती कात्यायनी का व्रत पूरा होने पर कहा था—आगामी शरद रात्रियों में हम साथ-साथ नाचेंगे, गायेंगे और खेलेंगे। जब यह धन्य घड़ी आयी, तो तुम एकाएक ऐसे निष्ठुर कैसे बन गये? यह सत्य है कि तुम परम स्वतन्त्र हो, तुम पर किसी का कोई वश नहीं चलता, पर तुम अंतर्यामी हो, बताओ हम अब और क्या करें ? कहाँ और कैसे... जा... यँ ?' शोक की अधिकता से किशोरीजी का गला रुंध गया वे आगे बोलने में असमर्थ हो गयी। मूर्छित हो गिरने लगी कि श्यामसुंदर शिघ्रता से उठ खड़े हुए, बंसी फेंट में खोस ली और चेतनाहीन होती श्रीकिशोरीजी को सम्हाल लिया।
'अच्छा सखियों! तुम्हारी इच्छा सफल हो।'–सुनकर लगा सूखती साख को वर्षा की फुहार मिली, हिमदग्ध कमलिनियों ने रवि का - स्पर्श पाया और मरुभूमि में प्यास से प्राण त्यागते प्राणी को देवी भागीरथी सुलभ हुई।
'उन्होंने अपने पटुके से हमारे अश्रुसिक्त मुख पोंछें, हँसी-ठिठौली करके मनुहार करके हमें प्रसन्न किया। हास-परिहास, भाग-दौड़, क्रिड़ा और कार्य के क्या एक ही रूप थे ? जिसने जो चाहा, जैसा चाहा.... क्या.... कहूँ उद्धव ! वे मानो हमारा खिलौना बन गये। हमारे मन - प्राण देह कुछ भी अपना न रहा, सब कुछ उनमें मिल गया था। जो हो रहा था वह उनके मनसे अथवा हमारे मन से- किससे हो रहा था ज्ञात नहीं; कौन किससे खेल रहा था क्या कहूँ....! सौभाग्य की उस पराकाष्ठा को अभिव्यक्ति देने को शब्द ही नहीं पा रही हूँ। हम अपने सौभाग्य-सुख आनन्द सागरमें डूब उतरा रही थीं। उस सागर में जो लहरें उठतीं, उसपर हमारे मन-प्राण नृत्य से करते; वह क्या था ? वह.... क्या.... . था ?... कुछ मत पूछो उद्धव ! कुछ मत.... पूछो !'
जय जय श्री राधेश्याम
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जय जय श्री राधे ! श्री वृंदावन !
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