कार्तिक मास महात्म्य कथा - भाग 25

कार्तिक मास महात्म्य कथा - भाग  25


पच्चीसवां अध्याय


तीर्थ व्रत और दान आदि के करने से समस्त पाप नष्ट हो जाते हैं मगर प्रेत योनि में रहने वाले को इसका अधिकार नहीं है। तुम्हारे दुःख को देखकर मैं अत्यन्त दुःखी हूँ और तुम्हारा दुःख दूर किये बिना मुझे सन्तोष नहीं होता, तुम्हारे पाप बड़े भारी है क्योंकि यह तीनों योनियाँ बहुत बड़े पाप करने वाले को ही प्राप्त होती है और प्रेत योनि तो थोड़े पुण्य से नष्ट भी नहीं हो सकती है। लेकिन मैं तुम्हें इस योनि से अवश्य छूडाउंगा इसलिए मैने जो 

कार्तिक का व्रत किया है उसका आधा पुण्य तुम्हें देता हूँ क्योंकि यज्ञ, दान, त़ीर्थ से सब निश्चय ही कार्तिक के व्रत के पुण्य के समान नहीं है।

देवर्षि नारद बोले -हे राजन! धर्मदत्त ने उसको ""ऊँ नमो भगवते वासुदेवाय:""यह  द्वादषाक्षर मंत्र सुनाया और तुलसी का जल उसके उपर छोडा़। बस फिर क्या था क्षण भर में वह प्रेत योनि से छूटकर प्रज्वलित शिखा के समान दिव्य रूप धारण कर लक्ष्मी के समान सुन्दर हो गई तब वह धर्मदत्त को दंडवत करके प्रसन्नता से गदगद होकर बोली -

         हे -ब्राम्हण आपके आशीर्वाद से मैं इसघोर नरक से छूट गई हूं। मुझे पाप सागर में डूबती हुई के लिए आप नौका के समान हैं। नारदजी ने कहा -हे राजन! अभी कलहा इसी प्रकार कह ही रही थी की वहाँ पर विष्णु गण एक देदीप्यमान विमान लेकर वहाँ आये, विमान के द्वार पर अप्सराये और गण बैठे हुए थे। 


धर्मदत्त ने उनको देखकर प्रणाम किया।पुण्यशील और सुशील नामक भगवान विष्णु के गणों ने धर्मदत्त को अपने हाथों से उपर उठा कर उसका अभिनंदन करके कहा -हे द्विजश्रैष्ठ! आप धन्य है जो सदा भगवान विष्णु के व्रत, कथा और सेवा में लगे रहते हो। आपने जो अपने बाल्यकाल में पवित्र और शुभ कार्तिक व्रत किया था उसके आधे फल से कलहा के पूर्व जन्म के एकत्रित पाप नष्ट कर दिये हैं ,यही नहीं आपकी कृपा से उसके सैकड़ों जन्म के पाप नष्ट हो गये हैं। 


आपके जागरण आदि करने से पुण्य प्रभाव से आकाश मण्डल से यह विमान आया है। हे-ब्राम्हण! अब हम इसे भांति भांति के भोगों से युक्त बैकुंठ में ले जा रहे हैं आपके दान -पुण्य के प्रभाव से यह भगवान विष्णु के पास रहेगी। आप भी इस जन्म के बाद अपनी दोनों स्त्रियों सहित बैकुंठ में विष्णु जी के पास रहोगे और मुक्ति प्राप्त करोगे। हे-दयासागर! वह मनुष्य धन्य है और जन्म उन्हीं का फलीभूत है जिन्होंने तुम्हारी तरह विष्णु जी की भक्ति की है,क्योंकि भगवान विष्णु भला अपने भक्तो को क्या नहीं देते हैं।


जिन्होंने प्राचीन काल में उत्तानपाद के पुत्र को ध्रुव पर पहुँचाया जिसके सुमिरन से प्राणियों की मुक्ति हो जाती हैं। प्राचीनकाल में विष्णु जी केवल अपने नाम के स्मरण से ही आप द्वारा पकड़े हुए हाथी को हस्ति योनि से मुक्त करके जय नाम देकर अपना पार्षद बना लिया, तमने उसी विष्णु की सेवा की है। इसलिए तुम अपनी दोनों स्त्रियों सहित एकहजार वर्ष तक भगवान विष्णु के पास निवास करोगे। जब तुम्हारा पुण्य क्षीण हो जायेगा तब तुम सुर्यवंश में अपनी दोनों रानियों के साथ राजा दशरथ के नाम से प्रसिद्ध होगे। तथा यह कलहा तुम्हारे आधे पुण्य की भागीदारी होने के कारण तुम्हारी तीसरी भार्या होगी व भगवान विष्णु पुत्र के रूप में तुम्हारे पास रहेंगे और देवताओं का कार्य करेंगे। 


विष्णु जी को प्रसन्न करने वाले तुम्हारे कार्तिक व्रत से अधिक यहाँ दान तीर्थ आदि और कोई भी नहीं है। हे-दयासागर! तुम धन्य हो क्योंकि तुमने जगत गुरू भगवान विष्णु को प्रसन्न करने के लिये कार्तिक मास का व्रत किया है जिसके आधे पुण्य से फल की भागीदार कलहा हैं इस समय हम इसे अपने साथ विष्णु लोक में ले जा रहे हैं

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