सखियों के श्याम -9
🌹 नंद गोप सुतं देवि पतिंमे कुरू ते नमः 🌹
बड़भागी कदम्ब, स्मरण है न तुझे वह दिन ! क्या कहा ? सुननेका आकांक्षी है ?
अच्छा तो सुन मेरे भैया ! मुझे भी इस समय कोई काम नहीं है। श्यामसुंदरके मंगल चरित्र कहने-सुननेसे किसको तृप्ति हो पाती है ?💙🌹
'सखियों! भगवती पौर्णमासीसे 'मार्गशीर्ष महात्म्य' सुनकर लालसा जग उठी है 'मार्गशिर्ष स्नान करने की।'- श्रीकिशोरीजीने सब सखियों से कहा—
'यह कुछ कठिन नहीं है! सबेरे ब्राह्ममुहुर्तमें उठकर यमुनामें स्नान करना और कात्यायनीका पूजन। एक समय भोजन और आचार विचारकी पवित्रता, बस! जो तुम सबका अनुमोदन हो तो मेरी यह चाह पूरी हो सकेगी, अन्यथा मैया मुझे अकेली सूर्योदयसे पूर्व यमुना स्नानको नहीं जाने देगी।'
हम सब यमुना किनारे सघन तमालके नीचे अपने-अपने रीते घड़े लिये बैठीं थी। तमाल-मूलसे लगे पत्थरपर एक सखीने अपनी औढ़नी बिछा दी थी, उसी पर भानुकिशोरी विराजमान थीं। समीप ही उनकी कलशी पड़ी है और दोनों ओर ललिता-विशाखा बैठी हैं, सम्मुख श्रीचन्द्रावली है। सखियोंमें किसीकी कलशी पार्श्वमें और किसीकी सम्मुख अथवा गोदमें धरी है। श्रीभानुनंदिनीकी बात सुन सब उत्सुक हो उठीं।
एक सखी बोली- 'आपकी इच्छा ही हम सबकी इच्छा है किशोरी जू ! किंतु केवल सुननेके लिये पूछ रही हूँ कि 'मार्गशिर्ष-स्नान' से क्या होता है?'
'मनोरथ पूर्ण होता है।'🌹
'हम सब यह व्रत करेंगी।☺️
‘अच्छा सखियों सूर्योदयसे घड़ी-दो-घड़ी पूर्व ही पूजन सामग्री लेकर घाटपर आ जाना। कल एकादशी है, कलसे ही व्रत आरंभ होगा। तुम सबने स्वीकार कर मुझपर बड़ी कृपा की।'- किशोरीजीने कहा।
'यह क्या कहती हैं आप? कृपा तो आपने की है हमपर। हम तो मूढ़ अज्ञ है। किसी ओर पथको न पाकर अंधेरेमें भटक रही थीं; आपने उस अन्धकारमें आशा किरण सुझाई है।' – कई सखियाँ एक साथ बोलीं।
सूर्यादयसे पूर्व ही उठकर हमने एक दूसरीको पुकारकर साथ ले लिया। आगे नंदिश्वरपुरके घाटपर इकट्ठी हो गयी, सब ऊँचे स्वरसे श्याम गुणावलीका गान करते हुए वस्त्र उतार यमुनामें स्नान करने लगीं। जल शीतल था, कंपकपी छूटी, रोम उत्थित हुए, पर हमें अपने उत्साह और श्रीकृष्ण गुणगानमें लीन पाकर पीड़ा अवसर न पाकर कहीं जा छिपी आज प्रथम बार खुलकर मुक्तकण्ठसे मन भावतो गानेका अवसर मिला है। धीरे-धीरे गुनगुनायें या मन-ही-मन रोयें, इसके अतिरिक्त तो और कोई उपाय था नहीं! नहा-धोकर वस्त्र पहननेके पश्चात श्रीभानुललीने तटपर सैकत की मूर्ति बनायी। कुंकुम, अक्षत, धूप, दीप, पुष्प और नैवेद्यसे पूजा की, मन-ही-मन अभिलाषा उच्चरित की और सब प्रणतिमें झुक गयी, नयन मन भर आये सबके ।👏🏻🌹
उठकर आरतीका समारंभ किया, साथ ही एक दूसरेसे पूछने लगीं- 'री तूने कहा मांग्यो ?'🥰
कोई सकुचाकर मुँह नीचा कर लेती😌
कोई हँसकर मुँह फेर लेती☺️,
कोई भाव भरे नयनोंसे पूछनेवालीकी ओर देखकर मौन रह जाती🙂
तो कोई ढिठाई हँसकर पूछनेवालीके गाल मीडकर कहती-
'सखी! जो तूने मांग्यो सोई मैंने मांग्यो ! तू अपनेसे पूछ कि तूने कहा मांग्यो ? मुझसे पूछ के क्या करैगी।'🥰
इस समय तो कोई कुछ नहीं कह सकी, किंतु आरती करते हुए सभी एक स्वरमें गा उठीं
आद्याशक्ति महाशक्ति कात्यायनी देवी दयाकरि देहु दान।
नंदगोप सुवन पति होय हमारे, विनय सुनहुधरि कान ॥💙🌹☺️👏🏻
आरती-परिक्रमाके पश्चात प्रसाद वितरण हुआ और हम पुनः देवी कात्यायनी और व्रजभूषणके गुण गाती गृहोंको लौट चलीं। यही नित्यक्रम बन गया हृदयमें आनंद सागर उमड़ा पड़ता, नित्य ही लगता आज देवी प्रसन्न होकर कहेंगी- 'वरं ब्रूहि ।' कुछ-न-कुछ त्रुटि रह गयी आज, कल अवश्य प्रसन्न होंगी। हमारा विश्वास और प्रतिक्षा अटल थी।🌹
आज.... आज.... पूर्णिमा है; हमारे व्रतका अंतिम दिन आज तो अवश्य ही देवी प्रकट हो जायेंगी। हम सब गातीं और उत्साहसे उछलती यमुना तटपर पहुंची। वस्त्र उतारकर लगी जलमें गोते लगाने। कहीं एक दूसरी पर जल उछाल रही थीं तो कहीं दो-दो तीन-तीन मिलकर डूबकियाँ लगा रही
थीं। ☺️
तभी अचानक तटपर कई कण्ठोंके हँसनेका शब्द हुआ।
‘ये छोरे कहाँसे आ गये?’ – हम सोच भी न पायी थीं कि वंशीनादने बरबस दृष्टि खीच ली।
क्यों महाभाग्यवान कदम्ब ! वह दिन याद है न तुझको ?
मुरलीधरकी वह अपार शोभा; उसका वर्णनकर सके ऐसी जीभ- ऐसी भाषा किसके पास है? 💙
हम सबके वस्त्र डालपर धरे, करमें मुरली लिये, तुम्हारी डालपर बैठे मुस्करा रहे थे। पीछे पूर्व दिशामें उदित होते भगवान् भुवन भास्करका अरुण बिम्ब उनका आभा मंडल प्रतीत होता था। वह मुस्कान वह छवि हृदयसे निकलती नहीं भैया!☺️
पाँच से सात बरसकी-वयकी बालिकायें हम सब और श्यामसुंदर भी हमारे समवयस उनके सखा हमारे भाई-भतीजे नित्य हम उनको चिढ़ाती और वे हमें कोई न कोई अवसर तो नित्य मिल ही जाता है।
आज.... आज हम गले तक ठंडे पानीमें डूबी भला उनका क्या प्रतिकारकर सकती है?
सारी चंचलता सारी हाँस हवा हो गयी।
श्यामके सखा उठाकर हँस रहे थे और हमें कुछ समझमें नहीं आ रहा था कि क्या करें ?
तनकी लाज तो तारुण्यका भूषण है श्यामसखा ! वह हमें क्यों सताती, कलतक तो हमारी मैया हमें घाटपर नग्न स्नान कराती थीं और हम भी जब जल भरने जातीं तो वस्त्र उतारकर नहा लेतीं। श्याम और इनके सखाओंको भी हम देखतीं वे कछनी पटुका तटपर रख धम्-धम् करके जलमें कूद पड़ते। लज्जा तो वयस्कोंको ही समीप फटकती हैं।
ग्लानि इस बातकी थी कि श्यामसुंदरकी इस अचगरीका क्या उत्तर दें उन्होंने वंशी तो हमें सचेत करनेको बजायी थी, ज्यों ही हमने उन्हें देखा, त्यों ही उन्होंने बंसी फेंटमें खोंस ली।🌹
हम सब एक दूसरेका मुँह देखने लगी कि अब क्या करें! कभी नीची दृष्टिसे श्रीकृष्णको देखती और कभी जलको निहारने लगतीं। हम शीतसे काँप रही थीं, दांत परस्पर संघर्षकर रहे थे, ऐसेमें श्यामने यह कैसी करी !
इस दयीमारे अभागे मनको क्या कहूँ। इतने पर भी क्रोध नहीं आ पा रहा था। मनमें आता था, हम अनंतकाल तक ऐसे ही खड़ी, उस शोभाको निहारती रहें💙🌹, पर मन चीती कब हुई है। अंतमें चंद्रावली जीजी बोली
'श्यामसुंदर! तुम्हारे उधमकी सीमा हो गयी, हमारे वस्त्र काहेको लेकर वृक्षपर चढ़ बैठे हो ? दो हमारे वस्त्र !'
'आकर ले जाओ।'– श्यामसुंदर हँसकर बोले।💙☺️
'हम भला वृक्षपर चढ़ेंगी? जहाँ हमने रखे थे, वहीं रख दो; अन्यथा हम तुम्हारे बाबाको कह देंगी।'
'जा सखी! जाकर कह दे अभी; मैंने तुझे कब मना किया ?"
'देखो श्यामसुंदर! हमको ऐसे विनोद नहीं सुहाते; हमारे वस्त्र दे दो और अपने गैल लगो।'
'विनोद मैं भी नहीं कर रहा सखी। तुम ठंडसे काँप रही हो, ऐसेमें क्या विनोद करूँगा भला ? आओ अपने-अपने वस्त्र ले लो।'
'श्यामसुंदर! तुम व्रजराजकुमार हो, ऐसा उपहास तुम्हें शोभा नहीं देता। हमारे वस्त्र लौटा दो!'- विशाखा जीजी बोली।
'मैं कह चुका हूँ सखी! उपहास विनोद कुछ नहीं कर रहा! तुम चाहो तो एक साथ आकर ले जाओ, चाहे एक-एक आकर ले जाओ। मैं ऊपरसे वस्त्र डाल दूँगा।'
'ऐसा हठ क्यों करते हो मोहन! हम शीतमें ठिठुर रही हैं। तुम तो धर्मका मर्म जानते हो। धर्मकी रक्षा और दुष्ट दलन लिये ही तुम अवतरे हो। यह कौन-सा धर्म है कि हम अबलाओंको सता रहे हो।'– ललिता जू बोली।
'सखी! यदि तुम मुझे धर्मका रक्षक मानती हो; तो फिर मेरा कहा मानो और बाहर निकल आओ। तुमने जिस उद्देश्यसे व्रत किया है वह इस नग्न स्नानसे नष्ट हो जायेगा।'🌹👏🏻
यह तो बुरा हुआ! अबतक तो हम श्यामसे हारनेकी शंकासे उत्तर प्रति उत्तर कर रही थी और हठ पूर्वक जलमें खड़ी थीं। अब तो ये कह रहे हैं कि व्रत ही नष्ट हो रहा है। एक क्षणमें ही हम दीन हो गयीं, आंखोंमें जलभर आया। अब तो स्वामिनी जू ही कुछ करें तो हो। सबने आशापूर्ण नेत्रोंसे उनकी ओर देखा ।
'श्यामसुंदर! हम क्या कहें; हम तुम्हारी दासी हैं। तुम्हारे अतिरिक्त हमारी गति नहीं, तुम जो कहा सो सिर धारें!'- नमित मुख, भरित कण्ठ श्रीभानुकुमारी बोलीं।🌹
'श्री जू! नग्न स्नानसे वरुणदेवका अपमान हुआ है; तुम सबने महिने भर तक यह अपराध किया है। यदि तुम अपनेको मेरी दासी मानती हो तो बाहर आकर दोनों हाथ जोड़ वरुणदेवको प्रणाम करो, जिससे अपराधका मार्जन हो जाय।'
कदम्ब ! कितने सदय हैं नंदसुअन, हम अबतक इनके इस कार्यको उधम ही समझ रही थीं। अब समझमें आया, वे तो हमारे खंडित होते व्रतकी रक्षा करने आये हैं। हम सब अपराध बोधसे दब गयीं। मुख नीचे किये बाहर आयीं, श्यामकी दयाको स्मरणकर मन गद्गद हुआ जा रहा था।
'हाँ, अब प्रणाम करो और मन ही मन अपने अपराधकी भी क्षमा मांगो।'
एक साथ सहस्र सहस्र हाथ जुड़ गये मस्तक झुक गये और आ हृदय पुकार उठे – 'हे देव! हमारे अपराध क्षमा करो।"👏🏻
कदम्ब तुम तो देख रहे थे - आरम्भमें उनके सब सखा भी यही समझे थे कि हम इन छोरियोंको छकाने-चिढ़ाने आये हैं। पर वरुणके अपराधकी बात सुन वे भी हँसना भूल आपसमें कहने लगे – 'कन्हाई कितना सदय है, इनका व्रत बचा लिया।🌹👏🏻💙
जैसे ही हमने प्रणाम किया, सबके वस्त्र अपने-अपने कंधोंपर आ गिरे।🌹
'अब घर जाओ, खड़ी क्यों हो ?'– हमें वस्त्र पहने खड़ी देख, वृक्ष कूदते हुए बोले ।
क्या कहें पैर उठते नहीं, हृदय भर आया है, हम जहाँ-की-तहाँ खड़ी रहीं।
'अरी जाओ न ! घर नहीं जाना ? जाकर बाबासे कह दो मैंने तुम्हारे वस्त्र चुरा लिये।'— वे हँसते हुए हमारे सम्मुख आकर खड़े हो गये।
हमारे मस्तक झुक गये, नेत्रोंसे निकली बूंदे धराको सिक्त करने लगीं।
"तुम्हारा मनोरथ जानता हूँ मैं!'– उनका गम्भीर स्वर सुन चकित हो हम उन्हें निहारने लगीं।💙
आजतक कभी कोई बात उन्होंने गम्भीरता कही हो स्मरण नहीं आती। आजका स्वर अभितपर्व था। धीर गम्भीर, पर धीमे स्वरमें वे कहते गये-
'आगामी शरद रात्रियों में हम साथ ही वन-विहार करेंगे। साथ ही नाचेंगे, गायेंगे और खेलेंगे; अब
घर जाओ।' वे सखाओंकी ओर लौट पड़े।☺️
हमारे मनको हाल कहा पूछो!
अंधेको जैसे आँखें मिलीं, घाममें तपते को वट छाया सुलभ हुई हो जाते हुए श्यामसुंदरको देखती रहीं,
जब वे आंखोंसे ओट हुए तो किसी सखीने गीत आरम्भ कर दिया। उन्हींके गीत गाती, उन्हींके वचनोंको-रूपको स्मरण करती लौटीं हम सब
कदम्ब, तुम तो उनकी बातके साक्षी हो न! कब आयेगा शरद ?
कब होगी वह धन्य घड़ी ?
मैंने सघन घुंघुरुओंवाले नूपुर मँगवाये हैं। कैसा होगा वह समारोह ?
शत-शत तारिकाओंके मध्य मानो उडूपति हाल तो बसन्त है;
बहुत दूर है शरद ! भगवान् भुवनदीप; कृपा करके शीघ्रता करो न !
वह.... वह.... आनंद कैसे सम्हाला जायेगा मुझसे,
जिसकी कल्पना ही विह्वल कर देती है। 💙
उनके कर.... में कर दिये... नृत्य के..... लिये... प्र. स्तु त हो ऊं..गी. मैं.... ।
जय जय श्री राधेश्याम
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जय जय श्री राधे ! श्री वृंदावन !
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